सदी के पार
रेत की तासीरमें है आंच,
बारिश
धूप की है
मैं नदी के पार
जाना चाहता हूँ।
मैं कोई
पाषाण का टुकड़ा नही हूँ
आदमी हूँ ,
आदमी हूँ इसलिए
संवेदना में हांफता हूँ।
हांफ कर कुछ पल
ठहरने को भला तुम
हार का पर्याय
कैसे मान लोगे ।
मैं शिशिर का
ठूंठ , पल्लवहीन
पौधा भी नही हूँ
बीज हूँ
मुझमें उपजने की
सभी संभावना
मौजूद हैं जब,
क्योँ करूँ स्वागत
किसी बांझे दशक का।
मैं सदी के
पार जाना चाहता हूँ ।
लेबल: अनिल शुक्ल
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